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25 December 2014

आया सेंटा आया सेंटा

आया सेंटा  आया सेंटा 
भर कर झोली लाया सेंटा 

लाल सफेद कपड़े पहन कर 
मुस्कुराता बन ठन कर चल कर 
जादू की छड़ी घुमाता सेंटा 
खुशियाँ खूब बिखराता सेंटा 

आया सेंटा आया सेंटा 
बन कर फरिश्ता आया सेंटा 

चॉकलेट टॉफी केक यहाँ है 
क्रिसमस ट्री की जगमग यहाँ है 
यीशु के गीत गाता सेंटा 
सबको खूब लुभाता सेंटा 

आया सेंटा  आया सेंटा 
मन को बहुत है भाया सेंटा 

पूरे साल कहीं छुपा है रहता 
उपहारों से झोली भरता 
बड़े दिन का जश्न मनाता सेंटा 
सबके दिल पर छाया सेंटा 

आया सेंटा  आया सेंटा
नयी सौगातें लाया सेंटा

-यशवन्त माथुर 

21 December 2014

ज़िंदगी यूं ही चलती है

रातों के बीतने के साथ
सूरज के निकलने के साथ
एक तारीख गुजरती है
एक तारीख सँवरती है
ज़िंदगी यूं ही चलती है ।

कैलेंडर के पन्ने बदलते  हैं
राहों के सुर बदलते  हैं
कोई कहानी बनती है 
कोई कहानी बिगड़ती है 
जिंदगी यूं ही चलती है। 

धारा के बहने के साथ 
बाधाओं पर तैरने के साथ 
मंज़िल जब आ मिलती है 
खुशी अशकों में मिलती है 
जिंदगी यूं ही चलती है।

~यशवन्त यश©

17 December 2014

वो नहीं बच सकेंगे दोज़ख की आग से

कुछ सोच कर ही
ऊपर वाले ने
बनाया होगा
बचपन ....
कुछ सोच कर ही
ऊपर वाले ने
दिया होगा
मासूम सा मन ....
कुछ सोच कर ही
दी होंगी
शरारतें
मुस्कुराहटें
और बे परवाह सी
जिंदगी ....
पर ये न सोचा होगा
कि एक दिन
उसके ही बनाए
कुछ कायर पुतले
उसके ही नाम पर
बिखरा देंगे
खूनी छींटे
और
यूं छलनी कर देंगे
तार तार कर देंगे
उस विश्वास को
जो अब तक
रहा है कायम ...
अनेकों दिलों में
जिसके बल पर
बंधी रही है
उम्मीद
जीवन के
हर मोड़ पर 
कुछ कर गुजरने की ....

मासूम बच्चों को
ढाल बना कर
अपने
नापाक अरमान लिए  ये कायर
कट्टरता
क्रूरता के गुमान में
भले ही
पा लें क्षणिक सुख
लेकिन
बरी न हो पाएंगे कभी
दोज़ख की आग से।

(पाकिस्तान में आतंकी हमले मे मारे गए सभी मासूम बच्चों को 
विनम्र श्रद्धांजली )

~यशवन्त यश©

16 December 2014

देखना नहीं चाहता कालिख को

बीते पलों की
कुछ बातें
कुछ यादें
बन कर
दबी रह जाती हैं
कहीं
किसी कोने में
वक़्त-बेवक्त 
आ जातीं हैं
अपनी कब्र से बाहर
देने लगती हैं
सबूत
खुद की
चलती साँसों का.....
उधेड़ देती हैं
परत दर परत
अनचाहे ही
सामने ला देती हैं
आदिम रूप
जिसे
खुद से ही
छिपाने से
न नफ़ा
न नुक्सान ही होता है .....
लेकिन
खुद के अक्स को
शीशे में 
इस तरह
नुमाया देख कर
शर्मिंदगी से
कुलबुलाता मन
दोबारा
जानना 
नहीं चाहता
देखना नहीं चाहता
सफेदी के
निचले तल पर
जमी और चिपकी हुई
कालिख को। 
 
~यशवन्त यश©

13 December 2014

वह सैनिक है

घर बार से
कहीं दूर
किसी रेगिस्तान की
रेतीली ज़मीन पर
या
बर्फ भरी
पर्वतों की
ऊंची चोटियों पर 
ठौर जमाए 
पीठ पर
भारी बोझ 
हाथ में हथियार
और निगाहों में
पैनापन लिए
वह
जूझता है 
मौसम की मार
और
दुश्मन के वार से
लेकिन
हिलता नहीं
शहादत के
अटल
दृढ़ संकल्प से  .....
उसका समर्पण
उसका तन
उसका मन
मातृ भूमि की
सरगम में 
डूबता उतराता हुआ
बहता चलता है
घर बार से
कहीं दूर
किसी
सीमा रेखा के भीतर 
हजारों हजार
दुआओं
और सलामों को
साथ लिए
जिसे गर्व होता है
खुद पर
वह
सैनिक है।

~यशवन्त यश©

10 December 2014

संभव हैं परिवर्तन

मैं या हम
कभी अकेले
कभी साथ
निकल चलते हैं
बाहर की ओर
देखने
घटना चक्र 
सृष्टि चक्र
जो घूम रहा है
अपनी पूर्वनिश्चित
धुरी पर 
तय परिपथ पर
जिससे पीछे हटना
बाहर निकलना
अब तक
संभव नहीं
लेकिन संभव हैं
अपार परिवर्तन
इसी सीमा के
भीतर
रिक्त स्थानों में
जहां
निर्वात के होते हुए भी
मैं या हम
देख सकते हैं
भविष्य के
वायु मण्डल को 
अपने 
अर्जित विज्ञान से।

~यशवन्त यश©

08 December 2014

फिर आयी एक नयी सुबह ......

बीते दिन की
बीत चुकी
यादों की
तस्वीर को
साथ लिए
फिर आयी
एक नयी सुबह 
हवा में
हल्की ठंडक
और ताजगी के साथ
उम्मीद भरी
सूरज की
किरणों से
मन की
कुछ
कहते हुए...

हो जाता है शुरू
इस सुबह का
इंतज़ार
हर दिन के
ढलने के साथ 
हर रात के
गहराने के साथ
मिटने लगते हैं
हताशा
निराशा के
बोझिल पल 
आस लिए
साथ लिए
एक रोशन
सुनहरी किरण
लो
फिर आयी
एक नयी सुबह।

~यशवन्त यश©

owo02122014

06 December 2014

नहीं पता बहते रहने का अर्थ

मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
और
उन उठती गिरती
लहरों को
जिनके बारे में
पढ़ा है
किताबों में
अखबारों में
जिन्हें देखा है
सिर्फ तस्वीरों में
कल्पना में
और कुछ सपनों में.....
मैं
छूना चाहता हूँ
उस नीले आसमान को
जो नीचे उतर आता है
साफ पानी के शीशे में
खुद को संवारते हुए
निहारते हुए
जो देखा करता है
बादलों का यातायात
पक्षियों के
गति अवरोधक
सूरज –चाँद-तारे
और न जाने कितने ही
वो अनगिनत पल
जो हैं कहीं दूर
मुझ मनुष्य की
कल्पना से ....
मैं
मिलना चाहता हूँ
ठंडी हवा की
गहराइयों में
घुल कर
छूना चाहता हूँ
खुद को
पाना चाहता हूँ
वह एहसास
जो
जीवन की दौड़ में
एक दूसरे को
पीछे छोडते
बीते हुए  
पलों को होता है....
इसलिए
मैं
देखना चाहता हूँ
समुद्र को
कहीं किनारे पर
खड़े हो कर
क्योंकि
धूल के गुबार भरे
इस सुनसान
मैदान में खड़े रह कर
अंत की
राह तकते हुए
मुझे
अब तक नहीं पता
जीवन के
बहते रहने का अर्थ ।

~यशवन्त यश©

03 December 2014

कुछ लोग -8

जीवन की इन राहों पर
भीड़ भरे चौराहों पर 
अक्सर
भटकते दिखते हैं
कुछ लोग
कुछ खोजते हुए
किसी को
तलाशते हुए ....
कभी उठा लेते हैं
ज़मीन पर गिरा
कोई कागज़ का पुर्जा
पढ़ने को
दिल में बसा
किसी खास का नाम  ....
कभी रोक कर
राह चलते इंसानों को
करते हैं
कोशिश
यादों के जाल में
उलझ चुके
किसी अपने के
अक्स को
पहचानने की 
उसके गले लग जाने की ....
कभी
उम्मीद से भरा
मुस्कुराता
और कभी
उदासी में डूबा
उतरा सा
चेहरा लिये
कभी
आँखों से
झलकती खुशी 
कभी
गम के सैलाब में
भीगते हुए
भटकते हुए
कुछ लोग
जीवन की इन राहों पर 
अक्सर मिल कर 
दिखा देते हैं 
चेहरा 
तस्वीर के
दूसरी तरफ का।

~यशवन्त यश©

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02 December 2014

यूं ही इसी तरह

उड़ते
वक़्त के
बंद दरवाजों पर
देकर
एक दस्तक
अक्सर
करता  हूँ
नाकाम सी
एक
कोशिश
कि
या तो
वह थम जाय
कुछ पल
करने को
कुछ बातें
या
ले चले
मुझे भी
अपने ही साथ
अपनी ही गति से
अपनी ही
अंतहीन
अनंत यात्रा पर....
लेकिन
यह
हो नहीं सकता 
क्योंकि
मैं
नहीं हो सकता
मुक्त
वक़्त के ही बुने हुए
चक्रव्यूह से
जिसकी
भूलभुलैया में
भटकते ही रहना है
आदि से
अनंत तक.....
यूं ही
इसी तरह।

~यशवन्त यश©
owo01122014 

01 December 2014

चलना है यूं ही चलना है....

कभी कदमों को
यूं ही थाम कर
कभी भविष्य को
थोड़ा भाँप कर
मुड़ कर पीछे
राह नाप कर
चलना है
यूं ही चलना है....

मन की अपनी
सब से कह कर 
सब की कुछ
अनकही को सुन कर
जीवन चक्र की
धुरी पर चल कर
बढ़ना है
यूं ही बढ़ना है ......

वक़्त कम
इन चौराहों पर
खुले आसमां की
निगाहों पर
खुद के अक्स को
गले लगा कर
मिलना है
कभी बिछड़ना है .....

चलना है
यूं ही चलना है.... ।

 ~यशवन्त यश©
owo30112014  

22 November 2014

नया सफर

फिर शुरू हुआ
चलती साँसों का
एक नया सफर
उसी राह से
जिसकी लंबाई
हर पड़ाव पर
और बढ़ जाती है
मील के
इस पत्थर से
अगले पत्थर के
आने तक
बदलते रहते हैं
घड़ी की सूईयों के दौर
अर्श से फर्श तक
और फर्श से अर्श तक
अनगिनत ठौर
बदलते रहते हैं
दीवारों के रंग
इंसानी चेहरों के ढंग
मंज़िल की तलाश में
इन बिखरी
राहों के संग
समय की मार से
बे असर -बे खबर 
फिर शुरू हुआ
चलती साँसों का
एक नया सफर ।
 
~यशवन्त यश©

owo06112014  

17 November 2014

पुरस्कार बनाम लेखक की आज़ादी

ज के दौर में कौन ऐसा होगा जो पुरस्कार पाने को लालायित न होगा। चाहे वह कोई छोटा मोटा पुरस्कार हो या बड़े से बड़ा....पुरस्कार को ठुकराने की हिम्मत आज किसी में नहीं है। लेकिन कल के "हिंदुस्तान" में जब इस लेख को पढ़ा तो पता चला कि एक लेखक ऐसा भी था जिसने 50 साल पहले "नोबल" जैसे पुरस्कार को भी ठुकरा दिया था।
http://www.livehindustan.com/…/article1-Very-sorry-event-se… से साभार पेश है कल प्रकाशित वही एतिहासिक आलेख-
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लेखक की आजादी

 पचास वर्ष पहले एक घटना ने दुनिया में खलबली मचा दी थी। 1964 में फ्रांस के विख्यात लेखक-चिंतक ज्यां-पॉल सार्त्र ने नोबेल पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया था। सार्त्र एकमात्र शख्सियत हैं, जिन्होंने स्वेच्छा से यह पुरस्कार नहीं लिया था। अपना रवैया स्पष्ट करते हुए उन्होंने जो वक्तव्य प्रकाशित किया था, वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। प्रस्तुत है वही वक्तव्य

मुझे इस बात का बेहद अफसोस है कि यह घटना एक सनसनी बन गई: एक पुरस्कार दिया गया और मैंने उसे लेने से इनकार कर दिया। यह सब इसलिए हुआ कि मुझे समय से सूचना नहीं दी गई कि क्या होने जा रहा है। जब 15 अक्तूबर के फिगैरो लिटरेयर में मैंने स्वीडन संवाददाता का स्तंभ पढ़ा कि पुरस्कार के लिए अकादमी का झुकाव मेरे नाम की ओर है, पर इस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है, तो मैंने समझा कि अकादमी को एक पत्र लिखने से, जो मैंने अगले दिन ही भेज भी दिया था, मेरा पक्ष स्पष्ट हो जाएगा और इस पर भविष्य में कोई चर्चा नहीं होगी।
मुझे उस समय नहीं मालूम था कि पुरस्कार ग्रहण करने वाले से विचार-विमर्श के बिना ही नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। मुझे यकीन था कि इसकी घोषणा होने से पहले अभी इसे रोका जा सकता है। पर अब मुझे पता है कि जब स्वीडिश अकादमी एक निर्णय ले लेती है, तो बाद में इसे निरस्त नहीं कर सकती। जैसा कि मैंने अकादमी को लिखे पत्र में स्पष्ट किया है, पुरस्कार लेने से इनकार करने का संबंध न तो स्वीडिश अकादमी से है और न स्वयं नोबेल पुरस्कार से। इसमें मैंने व्यक्तिगत व वस्तुपरक दो तरह के कारणों का जिक्र किया है।
व्यक्तिगत कारण ये हैं: मेरा इनकार किसी आवेग का भाव प्रदर्शन नहीं है। मैंने हमेशा आधिकारिक सम्मान से इनकार किया है। युद्ध के बाद 1945 में जब लीजन ऑफ ऑनर का प्रस्ताव रखा गया, तो सरकार से सहानुभूति रखते हुए भी मैंने इनकार कर दिया था। इसी तरह अपने कई मित्रों की सलाह के बावजूद मैंने कभी कॉलेज डि फ्रांस में जाने का प्रयास नहीं किया। मेरा यह रुख लेखकीय कर्म की मेरी अवधारणा से संबद्ध है। एक लेखक अगर अपने राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक विचार बनाता है, तो उसे सिर्फ अपने संसाधनों पर निर्भर होना चाहिए यानी लिखे शब्दों पर। वह जो भी सम्मान ग्रहण करता है, उनसे उसके पाठक को दबाव का अनुभव होता है, जो मुझे वांछनीय नहीं लगता।
जैसे अगर मैं ज्यां पॉल सार्त्र के रूप में हस्ताक्षर करता हूं, तो यह नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां पॉल सार्त्र के तौर पर हस्ताक्षर से नितांत भिन्न होगा। जो लेखक इस तरह के पुरस्कार स्वीकार करता है वह उस समिति या संस्था से भी खुद को संबद्ध अनुभव करता है, जिसने उसे सम्मानित किया हो। वेनेजुएला की क्रांति के साथ मेरी सहानुभूति केवल मुझे ही प्रतिबद्ध करती है, वहीं अगर नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां पॉल सार्त्र वेनेजुएला के प्रतिरोध का समर्थन करता है, तो वह संस्था के तौर पर पूरे नोबेल पुरस्कार को इसके लिए प्रतिबद्ध बना देता है।
इसलिए लेखक को खुद को संस्था में परिवर्तित होने से इनकार कर देना चाहिए, भले ही उसके लिए, जैसा कि इस मामले में है, परिस्थितियां कितनी ही सम्मानजनक क्यों न हों। नि:संदेह यह दृष्टिकोण नितांत मेरा अपना है। जो लोग यह पुरस्कार स्वीकार कर चुके हैं, उनकी कोई आलोचना इसमें नहीं है। मेरे मन में इनमें से बहुत से पुरस्कार विजेताओं के लिए सम्मान व सराहना की भावना है, जिनसे सौभाग्य से मैं परिचित हूं। मेरे वस्तुनिष्ठ कारण ये हैं: सांस्कृतिक मोर्चे पर आज जो एकमात्र संघर्ष संभव है, वह दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्त्वि का संघर्ष है- पूर्व और पश्चिम का संघर्ष। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि वे एक-दूसरे को गले लगा लें - मैं जानता हूं कि इन दो संस्कृतियों का आपसी विरोध मतवैभिन्न्य का रूप ले लेगा-लेकिन यह विरोध लोगों और संस्कृतियों के बीच होना चाहिए। इसमें संस्थाओं का दखल न हो।
मैं स्वयं दो संस्कृतियों के अंतर्विरोधों से गहरे प्रभावित हूं: मेरा व्यक्तित्व ऐसे ही अंतर्विरोधों से बना है। नि:संदेह मेरी सहानुभूति समाजवाद, जिसे पूर्वी ब्लॉक कहा जाता है, के साथ है, मगर मैं एक बुर्जुआ परिवार में पैदा हुआ व इसी परिवेश में मेरी परवरिश हुई। यही कारण है कि मैं उन लोगों के साथ मिल कर कार्य करना चाहता हूं, जो दोनों संस्कृतियों को निकट लाना चाहते हैं। और इसके बावजूद मुझे उम्मीद है कि बेशक जो बेहतर है, जीत उसी की होगी, यानी समाजवाद की। नि:संदेह यही कारण है कि मैं सांस्कृतिक सत्ता का दिया कोई सम्मान स्वीकार नहीं कर सकता। पश्चिम के सत्ताधिकारियों के अस्तित्व से अगर मेरी सहानुभूति हो, तब भी नहीं, वैसे ही मैं पूर्वी ब्लॉक से भी सम्मान नहीं ले सकता। हालांकि मेरी तमाम सहानुभूति समाजवादी पक्ष की ओर है, तब भी मैं उनका दिया सम्मान लेने में असमर्थ होता।
उदाहरण के तौर पर कोई अगर मुझे देना चाहे, तब भी मैं लेनिन पुरस्कार स्वीकार नहीं कर सकता, हालांकि ऐसा कुछ है नहीं। मैं जानता हूं कि नोबेल पुरस्कार अपने आप में पश्चिमी ब्लॉक का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर अब इसका रूप कुछ ऐसा ही हो गया है। ऐसी घटनाएं हो सकती हैं, जो स्वीडिश अकादमी के अधिकार क्षेत्र के बाहर हों। वर्तमान में नोबेल पुरस्कार पश्चिम के लेखकों व पूर्व के विद्रोही लेखकों के लिए पुरस्कार के तौर पर आरक्षित हो गया लगता है। उदाहरण के तौर पर इसे नेरूदा को नहीं दिया गया, जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से एक हैं। लुई अरागां इसके सही मायनों में हकदार थे, पर उन्हें देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठा। अफसोस है कि पुरस्कार पास्तरनाक को मिला, शोलोखोव को नहीं, यानी उस सोवियत लेखक को, जो देश के बाहर छपा और अपने देश में प्रतिबंधित हो गया। इसमें संतुलन के लिए दूसरे पक्ष के साथ भी ऐसा ही किया जा सकता था। अलजीरिया की लड़ाई के दौरान जब हमने ‘121 का घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए, तो मैं इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लेता, क्योंकि तब यह मेरा ही नहीं, उस स्वतंत्रता का भी सम्मान होता, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। पर ऐसा नहीं हुआ।
युद्ध के बाद ही मुझे पुरस्कार देने का निर्णय किया गया। स्वीडिश अकादमी के मंतव्य पर बात करते हुए स्वतंत्रता का जिक्र भी हुआ है। एक ऐसा शब्द जिसके बहुत से अर्थ निकाले जा सकते हैं। पश्चिम में स्वतंत्रता अपने सामान्य अर्थ में है: व्यक्तिगत रूप से मैं समझता हूं कि स्वतंत्रता ज्यादा सशक्त हो, जिसमें एक जोड़ी से ज्यादा जूते रखने और भरपूर खाने का अधिकार हो। मुझे लगता है कि पुरस्कार से इनकार करने से ज्यादा खतरनाक है, इसे स्वीकार करना। अगर मैं इसे स्वीकार करता हूं, तो यह एक तरह से अपना ‘वस्तुपरक पुनर्वास’ करना होगा। फिगैरो लिटरेयर के लेख के अनुसार, ‘एक विवादास्पद राजनीतिक अतीत को मेरे खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया गया’। मैं जानता हूं कि यह लेख अकादमी के विचार व्यक्त नहीं करता, लेकिन यह साफ तौर से व्यक्त करता है कि अगर मैं पुरस्कार स्वीकार कर लेता हूं, तो कुछ दक्षिणपंथी गुट इसे क्या मानेंगे। मैं इस ‘विवादास्पद राजनीतिक अतीत’ को अभी भी मान्य समझता हूं, भले ही मैं अपने अतीत की कुछ गलतियों को अपने साथियों के सामने स्वीकार करने को तैयार हूं।
इससे मेरा यह मतलब नहीं है कि नोबेल पुरस्कार कोई बुर्जुआ पुरस्कार है, पर इसकी यह बुर्जुआई व्याख्या मेरे आसपास के परिचित विशिष्ट परिवेश में की गई है। अंत में मैं राशि संबंधी प्रश्न पर आता हूं। यह अपने आप में बड़ा भारी बोझ है कि अकादमी विजेता को सम्मान के साथ प्रचुर धनराशि भी देती है। यही समस्या मुझे यंत्रणा देती है। या तो कोई पुरस्कार स्वीकार करे व पुरस्कार राशि उन संगठनों या आंदोलनों को दे, जिन्हें वह महत्वपूर्ण मानता है - मसलन मैं खुद लंदन की रंगभेद समिति को यह राशि देना चाहता। या कोई अपने सिद्धांतों के चलते पुरस्कार से इनकार कर इस तरह के जरूरतमंद आंदोलन को सहायता से वंचित रखे। पर मुझे लगता है कि समस्या का यह कोई बड़ा आधार नहीं है। बेशक मैं ढाई लाख क्राउन की यह राशि इसलिए अस्वीकार करता हूं, क्योंकि मैं अपने को पूर्व या पश्चिम के संस्थागत रूप में अपनी कोई पहचान नहीं बनाना चाहता, लेकिन दूसरी ओर किसी को ढाई लाख क्राउन के लिए उन सिद्धांतों को नकारने के लिए भी नहीं कहा जा सकता, जो उसके अपने ही नही हैं, उसके दूसरे साथियों की भी उनमें भागीदारी है। यही वे कारण हैं, जिन्होंने इस पुरस्कार का मिलना व इसे लेने से इनकार करना मेरे लिए पीड़ादायक बना दिया। मैं स्वीडन की जनता के साथ भाईचारा व्यक्त करते हुए यह स्पष्टीकरण समाप्त करता हूं।
(अनुवाद: सुमिता)

12 November 2014

परिवर्तनों के साथ.......

जीवन के
स्वाभाविक
अस्वाभाविक
परिवर्तनों के साथ
हम चलते रहते हैं
अपनी राह
करते रहते हैं
अपने कर्म
निभाते रहते हैं
अपना धर्म
फिर भी
अनजान बने रहते हैं
कभी कभी
डगमगाने लगते हैं
जब उतरने लगती हैं
मुखौटों की
एक एक परतें
और सामने
आने लगता है
एक अनचाहा काला सच
जो दबा हुआ था
सफेदी की भीतरी तहों में
उस सच के
बाहर आने के बाद
परतों की सिलाई
उधड़ने के बाद 
हर ओर से उठतीं
अस्तित्व को भेदतीं 
उँगलियाँ
रह सकती हैं
अब भी
अपनी सीमा के भीतर
गर कर लें संकल्प
कि
न होने देंगे खुद पर
समय के
रूप परिवर्तन का असर  ।

~यशवन्त यश©

08 November 2014

पगडंडियां .....(मृगतृष्णा जी की कविता)

कल शाम को फेसबुक पर मृगतृष्णा  जी की यह कविता पढ़ कर इसे अपने ब्लॉग पर साझा करने से खुद को न रोक सका। आप भी पढ़िये-

(1)
पगडंडियां मौके नहीं देतीं
संभलने के
पीछे से कुचले जाने का
ख़ौफ़ भी नहीं 


(2)
पगडंडियां दूर तक
नहीं जातीं
बस इनके क़िस्से
शेष रह जाते हैं

(3)
बड़े रास्तों तक पहुँचाकर
विधवा मांग सी
पीछे पड़ी रह जाती हैं
पगडंडियां

(4)
हरे हो गये मुसाफ़िर क़दम इनके
पीली दूब का श्रृंगार किये
आदिम रह जाती पगडंडियां

(5)
पहली रात के दर्द से घबराई
क़स्बाई लड़की लौट नहीं पायी घर
रात शहर उसने बदहवास खोजी
पगडंडियां

(6)
मेरे हिस्से की पगडण्डी
मिलती नहीं
घसियारिन के बाजूबंद सी
गुम हो गयीं पगडंडियाँ

---------मृगतृष्णा©

06 November 2014

बीते दौर की बातें

कभी कभी
बीते दौर की कुछ बातें
यादों के बादल बन कर
छा जाती हैं
मन के ऊपर
बना लेती हैं
एक कवच
रच देती हैं
एक चक्रव्यूह
जिसे भेदना
नहीं होता आसान
नये दौर की
नयी बातों के लिये ।
मन !
उलझा रहता है
सिमटा और
बेचैन रहता है
भीगने को
अनंत शब्दों की
तीखी बारिश में
जो अवशेष होते हैं
उड़ते जाते
उन बादलों के
जिनके भीतर
छुपा होता है
इतिहास 
उस आदिम
दौर का
जब चलना सीखा था
कल्पना की
दलदली धरती पर
कलम की
बैसाखी लेकर ।
मैं !
आज भी चल रहा हूँ
कल भी चलूँगा
चलता रहूँगा
पार करता रहूँगा 
उस दौर से
इस दौर के
नये चौराहे
मगर
इस थकान भरे सफर में
थोड़ा रुक कर
थोड़ा थम कर
आत्म मंथन के
अल्प अवकाश को
साथ ले कर
कभी कभी
बीते दौर की कुछ बातें
छा जाती हैं 
यादों के
बादल बन कर।
  
~यशवन्त यश©
owo04112014 

04 November 2014

कुछ लोग -7

कुछ लोग
होते हैं
कोरे पन्ने की तरह
सफ़ेद
जिनका मन
ज़ुबान और दिल
ढका होता है
पारदर्शक
टिकाऊ 
आवरण से....
आवरण !
जो रहता है
बे असर
चुगलखोरी की
दूषित हवा
और काली स्याही के
अनगिनत छींटों से
आवरण !
जिसे तोड़ने
चूर चूर करने की
कई कोशिशें भी
रह जाती हैं
बे असर
पाया जाता है
उन कुछ ही
लोगों के पास 
जो होते हैं
लाखों में एक 
उस जलते
चिराग की तरह
तमाम तूफानों के
बाद भी
जिसकी लौ
रोशन है
सदियों से
आज की तरह।

~यशवन्त यश©


[कुछ लोग श्रंखला की अन्य पोस्ट्स यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं] 

01 November 2014

वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

पीठ पर लादे भारी भरकम सा बस्ता
जिसके भीतर उसका हर ज्ञान सिमटता 
कभी करती हुई बातें संगी साथियों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से 

कभी हाथ थामे अपने किसी बड़े का 
गुनगुनाती हुई कोई प्यारी सी कविता 
खुश होता है मन उसकी शरारतों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

उसे नहीं पता क्या दुनिया के तमाशे हैं 
उसे तो चंद खुशियों के पल ही भाते हैं  
बेखबर गुज़रती है  बचपन की राहों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से। 

~यशवन्त यश©

23 October 2014

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ !

इन जलते हुए
हजारों दीयों में
ढूंढ रहा हूँ
एक अपना दीया
जिसकी रोशनी
सैकड़ों अँधेरों के
उस पार
पहुँच कर
दिखा दे एक लौ
उन उम्मीदों की
जो अब तक
सिर्फ कल्पना बन कर
उतरती रही हैं
कागज़ के झीने
पन्नों पर ....
किरचे किरचे बन कर
अब तक
जो उड़ती रही हैं
हवा में
और चूमती रही हैं
धरती के पाँव
उन उम्मीदों की
एक लौ
गर पहुँच सके
उन अँधेरों के दर पर
जिनके भीतर कैद
आंसुओं का सैलाब
बेचैन है
सब्र के हर बांध को
तोड़ कर 
नयी सड़कों पर
बह निकलने को
नये एहसासों के साथ 
तब सार्थक होगी
मावस की
यह रोशन रात 
गर ढूंढ सका
हजारों
जलते दीयों की
भूलभुलैया में
एक अपना दीया
जिसकी तलाश में
कितनी ही सदियाँ
बीत चुकीं
और कितनी ही
बीतनी बाकी हैं।

~यशवन्त यश©
owo21102014519pm 

16 October 2014

अच्छे दिन+अच्छे दिन

आटे दाल का भाव न पूछो
भरे बाज़ार पहेली बूझो
गुम हो गया चिराग का जिन्न
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

आलू ,गोभी अकड़ दिखाता
मंडी जाना रास न आता
महंगाई के यह ऐसे दिन  
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

देवियाँ अब भी लुटतीं पिटतीं 
अपमान के हर पल को सहतीं 
कहाँ कृष्ण ....यह कैसे दिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

दुखों मे जीता गरीब- किसान 
सूखा-बाढ़ से परेशान 
कम कीमत पर काटता दिन
अच्छे दिन -अच्छे दिन। 

टैक्स बचा कर टाटा टाटा 
एंटीलिया अंबानी बनाता 
फुटपाथों पर छत के बिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

काला धन कहीं नज़र न आता 
अब न कोई वापस लाता  
नमो -नमो जप जप के गिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन ।

-यशवन्त माथुर ©
16102014

15 October 2014

मौसम के रंग

बहुत अजीब होते हैं
पल पल
बदलते 
मौसम के रंग
कभी 
पलट देते हैं
मोड़ देते हैं 
तैरती नावों के रुख  
और कभी
अपनी ताकत से
चूर कर देते हैं
धरती का घमंड ....
इन रंगों में
कोई रंग 
कभी देता है ठंडक
डाह मे जलते
झुलसते मन को
और कभी
कोई रंग
दहका देता है
भीतर की आग को
जो लावा की तरह
निकलती है बाहर
तीखे शब्दों के
सुलगते ज्वालामुखी से.....
मौसम के
इन बदलते 
इन रंगों में
कोई रंग
कभी अपना सा
कभी गैर सा
लगता है
अपनी तरह
बदलता रहता है
मन को
मन की बातों को  .....
ठंडी हवा के
मीठे-तीखे
एहसास
साथ लिए 
रंग बदलते
मौसम के ढंग
बहुत अजीब होते हैं।

~यशवन्त यश©

owo15102014 

10 October 2014

वक़्त के कत्लखाने में -7

बज रहा है
कभी धीमा
कभी तेज़ संगीत
वक़्त के
इसी कत्लखाने में
जहाँ बंद आँखों से
ज़िंदगी
रोज़ देखती है
अगले सफर के
सुनहरे सपने
और खुश हो लेती है
देह की
अंतिम विदा में
उड़ते फूलों की
लाल पीली 
पंखुड़ियों को
महसूस कर के
खुद पर
बिखरा हुआ ....
आज
नहीं तो कल
जिस्म की कैद से
बाहर निकल
उसे भटकना ही है 
खुद के लिये
फिर एक नये
पिंजरे की खोज में
सुनते हुए
वही चाहा-
अनचाहा संगीत
जो  सदियों से
बजता आ रहा है 
एक ही सुर में
वक़्त के कत्लखाने में।

~यशवन्त यश©

इस श्रंखला की पिछली पोस्ट्स यहाँ क्लिक करके देख सकते हैं।  

05 October 2014

मन

मन !
भटकता है कभी
कभी अटकता है
आस पास की
दीवारों पर
लटकती
तस्वीरों के
मोहपाश में
फँसकर
कुछ समझता है
कभी
कुछ कहता है
बातें करता है
तन को छू कर
निकलने वाली
ठंडी हवाओं से
पेड़ों की हिलती
शाखाओं से
झरती सूखी पत्तियों
नयी कलियों से
तुलना करता है
कभीखुद के
बीते कल की
आज की
बनाता है रूपरेखा
हर अगले पल की
उलझते हुए
सुलझते हुए
उखड़ती साँसों से
कभी जूझते हुए
मन बस
मन ही होता है
किसी सागर से उठती
बेपरवाह लहरों की तरह।

~यशवन्त यश©
owo-05102014

03 October 2014

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक.....(पुनर्प्रकाशन)

आप सभी पाठकों को दशहरा बहुत बहुत मुबारक !
इस ब्लॉग पर पिछले वर्ष प्रकाशित पोस्ट को ही इस बार भी पुनर्प्रकाशित कर रहा हूँ।

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
भीड़ को चीरता हर चेहरा मुबारक
हर बार की तरह राम रावण भिड़ेंगे 
तीरों से कट कर दसों सिर गिरेंगे 
दिशाओं को घमंड की दशा ये मुबारक
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
महंगाई में भूखा हर चेहरा मुबारक
गलियारे दहेज के हर कहीं मिलेंगे 
बेकारी मे किसान लटके मिलेंगे
मिलावट का आटा-घी-तेल मुबारक 
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
रातों में हर उजला सवेरा मुबारक
कहीं फुटपाथों पे लोग सोते मिलेंगे 
जिंदगी से हार कर कहीं रोते मिलेंगे 
हम ही राम- रावण,यह लीला मुबारक 
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

~यशवन्त यश©

02 October 2014

क्या ऐसा हो सकता है ?

नोटों पर छपी
तुम्हारी
मुस्कुराती तस्वीर
हर रोज़ गुजरती है
न जाने कितने ही
काले हाथों से ........

दीवारों पर लगी
तुम्हारी
मुस्कुराती तस्वीर
हर रोज़ गवाह बनती है
न जाने कितने ही
असत्य बोलों की .......

तुम
बदलना चाहते थे
देश समाज
और विश्व
पर तुम्हारा
असीम संघर्ष
अंतिम साँस के साथ ही
दफन हो गया
उन किताबों के
गर्द भरे पन्नों पर
जिन्हें झाड़ पोछ कर
सजाया जाता है
हर साल
आज ही के दिन .....

मुझे बताओ
तुम कहाँ हो ?
अगर हो यहीं कहीं
तो क्या दिला सकते हो यकीं
कि तुम फिर आओगे
आज की
छटपटाती आज़ादी को
दिखाने एक नयी राह .....

बापू !
क्या ऐसा हो सकता है  ?

~यशवन्त यश©

01 October 2014

मैं 'देवी' हूँ-4 (नवरात्रि विशेष)

दुनिया की सूरत
देखने से पहले ही
मुझे गर्भ में मारने वालों !
मेरे सपने सच होने से पहले ही
दहेज की आग में
जलाने वालों !
सरे बाज़ार
मेरी देह की
नीलामी करने वालों !
बुरी नज़रों से
देखने वालों !
गली कूँचों
पार्कों में
मेरे दरबार
सजाने भर से
जागरण की रातों में
फिल्मी तर्ज़ पर बने
भजन
और भेंटें गाने भर से
इन सब से
न तुम्हें पुण्य मिलेगा
न ही मोक्ष मिलेगा
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
हर 'दामिनी'
हर 'निर्भया'
के दिल और
आत्मा से निकली
बददुआओं के
एक एक शब्द में ........
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
नश्तर की धार से बहते
मेरे लहू की
एक एक बूंद में .....
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
आग में जलकर
राख़ हुए
मेरे हर अवशेष में.....
तो
तुम अब जान लो
मैं पत्थर में प्राण नहीं
मैं साक्षात हूँ
तुम्हारे ही आस पास
तुम्हारी माँ
बहन-वामा
या बेटी हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-18092014

29 September 2014

मैं 'देवी' हूँ-3 (नवरात्रि विशेष)

ओ इन्सानों !
हर दिन
न जाने
कितनी ही जगह
न जाने
कितनी ही बार
करते हो
कितने ही वार
कभी मेरे जिस्म पर
कभी मेरे मन पर
समझते हो
सिर्फ अपनी कठपुतली
तो फिर आज
क्यों याद आयीं तुम्हें
वैदिक सूक्तियाँ
श्लोक और मंत्र
क्या इसलिए
कि यह आडंबर
अपने चोले के भीतर
ढके रखता है
तुम्हारे कुकर्मों का
काला सच ?
पर याद रखना
आज नहीं तो कल
तुम्हें भस्म होना ही है
मेरी छाया की परिधि
के भीतर
चक्रव्यूह में
जिसे रोज़ रचती हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-17092014

27 September 2014

मैं 'देवी' हूँ -2 (नवरात्रि विशेष)

गूंज रहे हैं आज
सप्तशती के
अनेकों मंत्र
हवा मे घुलती
धूप-अगरबत्ती
और फूलों की
खुशबू के साथ
अस्थायी विरक्ति का
सफ़ेद नकाब लगाए
झूमते
कीर्तन करते
कुछ लोग
शायद नहीं जानते
एक सच
कि मुझे पता है
उनके मन के भीतर की
हर एक बात
जिसकी स्याह परतें
अक्सर खुलती रही हैं
आती जाती
इन राहों के
कई चौराहों पर
जहाँ से
अनगिनत
रूप धर कर
मैं रोज़ गुजरती हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-17092014

25 September 2014

मैं 'देवी' हूँ -1 (नवरात्रि विशेष)

आज से
शुरू हो गया है
उत्सव
गुणगान का
मेरी प्राण प्रतिष्ठा का
बिना यह समझे
बिना यह जाने
कि मिट्टी की
इस देह में
बसे प्राणों का मोल
कहीं ज़्यादा है
मंदिरों मे सजी
मिट्टी की
उस मूरत से
जिसके सोलह श्रंगार
और चेहरे की
कृत्रिम मुस्कुराहट
कहीं टिक भी नहीं सकती
मेरे भीतर के तीखे दर्द
और बाहर की
कोमलता के तराजू पर
मैं
दिखावा नहीं
यथार्थ के आईने में
कुटिल नज़रों के
तेज़ाब से झुलसा
खुद का चेहरा
रोज़ देखती हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-17092014

17 September 2014

शब्द मेरी धरोहर हैं

शब्द !
जो बिखरे रहते हैं
कभी इधर
कभी उधर
धर कर रूप मनोहर
मन को भाते हैं
जीवन के
कई पलों को साथ लिये
कभी हँसाते हैं
कभी रुलाते हैं ....
इन शब्दों की
अनोखी दुनिया के
कई रंग
मन के कैनवास पर
छिटक कर
बिखर कर
आपस में
मिल कर
करते हैं
कुछ बातें
बाँटते हैं
सुख -दुख
अपने निश्चित
व्याकरण की देहरी के
कभी भीतर
कभी बाहर
वास्तविक से लगते
ये आभासी शब्द
मेरी धरोहर हैं
सदा के लिये।

~यशवन्त यश©

[यशोदा दीदी के ब्लॉग 'मेरी धरोहर' पर पूर्व प्रकाशित]

14 September 2014

भाषा

भाषा
माध्यम है
वरदान है
हरेक जीव को
कुछ
अपनी कहने का
सबकी सुनने का
कभी इशारों से
कभी ज़ुबान से
अपने कई रूपों से
जीवन में
रच बस कर
ले जाती है
कभी प्रेम के
असीम विस्तार तक
और कभी
डुबो देती है
घृणा या द्वेष के
गहरे समुद्र में  ।

भाषा
कभी सिमटी रहती है
नियमों की
परिधि के भीतर
और कभी
अनगिनत
शब्दों के
सतरंगी आसमान में
बे परवाह
उड़ते रह कर
कराती है एहसास
धरती पर
जीवन के होने का।

~यशवन्त यश©

08 September 2014

सब सपने सच नहीं होते

सुना था
कुछ सपने
बदलते हैं
हकीकत में
कभी कभी
देते हैं
न बयां होने वाली
खुशी
लेकिन
यह काल कोठरी
तमाम बदलावों और
रूप परिवर्तनों के बाद भी
अब भी वैसी ही है
जिसके रोशनदान से
झाँकती
उम्मीद की
कुछ सफ़ेद लकीरें
अपने तय रास्ते से
भटक कर
पहले से जमा
कालिख में
कहीं गुम होकर
घुल मिल जाती हैं
उसी कालकोठरी की
तन्हाई में
जिसके लिए सपने
ऐसी हकीकत होते हैं
जो कभी
सच नहीं होती।

~यशवन्त यश©

01 September 2014

शब्दों की दुनिया

जब देखता हूँ
डायरी के
भरे हुए पन्नों पर
बिखरे हुए जज़्बातों को
तो लगता है
शब्दों की यह दुनिया
कितनी विचित्र
किन्तु सत्य है ....

विचित्र इसलिये
कि मन की भित्ति पर
उभरी आड़ी तिरछी भावनाएँ
किसी प्रतिलिपि की तरह
इन पन्नों पर
हू ब हू
मेल खाती दिखती हैं .....

और सत्य इसलिये
कि इन पन्नों पर
जो दर्ज़ या दफ़न है
वह असत्य से कोसों दूर
बाहें फैलाए
कभी अपनी ओर खींचता सा
कभी आवाज़ देता सा लगता है ....

रंगबिरंगी स्याही से रंगे
डायरी के
इन चंद पन्नों पर
समाया रहता है
देश दुनिया का
पूरा इतिहास-भूगोल
खुशी-गम
बुढ़ापा और बचपन
जीवन का गूढ दर्शन ....
इसीलिए
जब देखता हूँ
बंद डायरी के
भरे हुए पन्नों पर
बिखरे हुए जज़्बातों को
तो लगता है
शब्दों की यह विचित्र
किन्तु सत्य दुनिया
बहुत आगे है
अमरत्व की कल्पना से।

~यशवन्त यश©

23 August 2014

कुछ लोग -6

पूर्वाग्रहों से
घिरे हुए
कुछ लोग
सब कुछ
जान समझ कर
बने रहते हैं
अनजान
करते रहते हैं
बखान
अपनी
सोच की
चारदीवारी के
भीतर की
उसी किताबी
मानसिकता की
जो निकलने नहीं देती
देखने नहीं देती
बाहर की दुनिया में
हो रहे
बदलावों की तस्वीर....

ऐसे लोग
अपने 'वाद' में
उलझे रह कर
व्यर्थ के विवादों का
सहारा ले कर
ढहा देते हैं
तर्क की
नींव पर
बन रही
एक
खूबसूरत
इमारत को ....
बिना जाने
बिना समझे
बिखरा देते हैं
एक एक ईंट
पूर्वाग्रहों से
घिरे हुए
कुछ लोग
अक्सर कर बैठते हैं
भूल
समय की
नीचे झुकी हुई
शिखा को
शिखर समझने की ।

~यशवन्त यश©

कुछ लोग श्रंखला की अन्य पोस्ट्स यहाँ क्लिक करके देखी जा सकती हैं। 

18 August 2014

चलो कहीं चलें इन अँधेरों से निकल कर

छोटी सी ज़िंदगी का
बहुत लंबा है सफर

चलो कहीं चलें
इन अँधेरों से निकल कर

कहीं जल रही है लौ
स्याह तस्वीरों की आँखों में

उलझे हैं जिनके होठ
बहते जीवन की बातों में

माना कि कठिन है
यहाँ काँटों भरी डगर

फिर फूल भी मिलेंगे
आगे कहीं बिखर कर

मिलेगा सुकुं रूह को
अब साहिल पर ही थम कर

चलो कहीं चलें
इन अँधेरों से निकल कर ।

~यशवन्त यश©

15 August 2014

लाल किले पर शान से तिरंगा लहराता है

सभी मित्रों को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 

एक तरफ रंक
एक तरफ राजा
कहीं दौलत का बंद
कहीं खुला दरवाजा .....

बड़ी मुश्किल से कहीं
पिसता गेहूं आटा
देखो यहीं कहीं
कोई पिस्ता मेवा खाता ....

बचपन कहीं पचपन
कहीं पचपन मे बचपन
चाँदी की चम्मच को
कोई ढालता कोई खाता .....

ऐसा ही है जीवन
यहाँ दो रंगों वाला
दो जून का निवाला
कोई किस्मत से ही पाता .....

ढूंढ रहा भारत
कहाँ भाग्य विधाता है
लाल किले पर शान से
तिरंगा लहराता है ......... ।

~यशवन्त यश©

07 August 2014

ज़रूरी नहीं.....

ज़रूरी नहीं
कि लिखा हो
सब कुछ
अपने मतलब का
किसी किताब के
हर पन्ने पर
कुछ बातें
होती हैं
अर्थ हीन
तर्क हीन
हमारी नज़र में
लिये होती हैं
मंज़र
बंजर ज़मीन सा
जिसके चारों ओर
फैला रहता है
घना सुनसान ....

लेकिन
उसी किताब की
पथरीली
बंजर
ज़मीन पर
कुछ और नज़रें
खिलते देखती हैं
उल्लास के
अनेकों फूल
जिनकी
उम्मीदों भरी
मुस्कुराहट
उस सुनसान मे भी
कराती  है एहसास
किसी अपने के
यहीं कहीं
करीब होने का ....

मन की परतों के
अनगिनत
पन्नों वाली
वह किताब
खुद मे
भविष्य के
अनेकों चेहरे लिये
वर्तमान के दर्पण मे
हर पल
दिखा कर
अपनी छाया
झकझोरा करती है
नज़रों के
बे कसूर
भरम को।

~यशवन्त यश©

04 August 2014

कोई रंक यहाँ कोई राजा बना फिरता है

कोई रंक यहाँ कोई राजा बना फिरता है
उठता है यहाँ कोई हर रोज़ गिरा करता है।

किसी के पैरों से यहाँ कुचल जाते हैं नगीने
किसी हाथ से  छूकर सँवर जाते हैं  नगीने।

मूरत बन कर कोई खड़ा रहता है मैदानों में
शीशों मे जड़ कर कोई टंगा रहता है दीवारों मे।

एक मिट्टी के कई चोलों में एक रूह के उतरने पर
कोई कर्ज़ मे डूबा कोई महलों मे इतराया करता है।

खोया रहता है रंगीनीयों मे कोई फर्ज़ अता करता है
यूं ही गिर उठ कर कोई रंक कोई राजा बना करता है ।

~यशवन्त यश©

01 August 2014

कुछ लोग -5

कुंठा के
विष से भरे
कुछ लोग
अक्सर भूल जाते हैं
अपने बीते दिन
और वो बीती बातें
जिनके आधार पर
खड़ी है
उनके आज की
संगमरमरी इमारत.....

जिसे कभी महल
तो कभी ताज़ कह कर
लोग निहारा करते हैं
बातें किया करते हैं
मगर
मोहब्बत की वो मिसाल
खुद के भीतर
समेटे रहती है
अनगिनत
कटे हाथों के ज़ख्म .....

...फिर भी
नहीं चाहते छोड़ना
अपनी अजीब सी फितरत
गैरों के कह देने भर से
बिना कुछ समझे
बिना कुछ जाने
कुंठा के
विष से भरे
कुछ लोग
आस्तीनों
बाहर निकल कर
दिखा ही देते हैं
अपना सही रूप रंग।

~यशवन्त यश©

28 July 2014

शून्य को समझना आसान नहीं

जितना आसान है
कागज़ पर उकेर देना
शून्य का चित्र
उतना ही कठिन है
ढालना
और समझना
शून्य का चरित्र .....
जो आदि से अंत तक
गुज़रता है
अनगिनत
घुमावदार मोड़ों से
जिसके रास्ते में
कभी मिलती है
समुद्र की गहराई
अंतहीन गहरी खाई
कभी मिलते हैं
मौसम के अनेकों रूप
कहीं छांव कहीं धूप
कहीं कांटे-फूल
गड्ढे
और न जाने क्या क्या
फिर भी
वह वृत्त
वह शून्य
वहीं आ मिलता है
जहां से
चला था
अपने सफर में .....
हज़ार यादों की
एक पन्ने मे रची
बेहद जटिल किताब
जिसके भीतर
कहीं छुपी सी हो
उस शून्य को
उकेरना
बहुत आसान है
पर उसे समझना
बिलकुल भी
संभव नहीं।

~यशवन्त यश©

22 July 2014

दीवारों से कुछ बातें ....

अच्छा है
कभी कभी
कर लेना
दीवारों से कुछ बातें ....
वह जैसी हैं
वैसी ही रहती हैं
बिल्कुल गंभीर
शांत
और कभी कभी
हल्के से मुस्कुराती हुई
राज़दार बन कर
सुनती हैं
सब बातें
बिना किसी तर्क-कुतर्क
बिना किसी क्रोध के ....
जिंदगी के
अँधेरों में
जब
छोड़ कर चल देते हैं
अपने ही
अपनों का हाथ
दीवारों का साथ
सुकून देता है
इसलिये
अच्छा है
कभी कभी
कर लेना
कुछ बातें
दीवारों से
क्योंकि दीवारें
बेहतर होती हैं
इन्सानों से।

~यशवन्त यश©

19 July 2014

सशक्तिकरण बनाम निर्भया

जिसे लोग समझते हैं
सशक्तिकरण
क्या वही सही है ?
घर की चौखट के बाहर
दिन के उजालों मे
रातों की चकाचौंध में
अंधेरे रास्तों से
गुज़रती
कभी पैदल चलती
कभी मोटर मे दौड़ती
हर वामा
भीतर ही भीतर
समाए रहती है
एक डर
एक दर्द
क्या पहुँच भी पाएगी
अपनी मंज़िल पर ?
किताबों में
यूं तो उसे कहा गया है
देवी और पूजनीय
उसके कदमों को
माना गया है
शुभ -लाभ
फिर भी
सिहरता रहता है
उसका मन
डोलता रहता है
उसका विश्वास ....
यहाँ कदम दर कदम
उसके 'अपनों' की नज़रें
'गैर' नजरों जैसी लगती हैं
'दृष्टि दोष' पीड़ित दुर्योधन
अपनी आँखों मे
तैरते लाल डोरों को
छुपाने के लिए
'सम्मान' का
चश्मा लगा कर
हर दिन
करते रहते हैं
उसका चीरहरण
और वह बचते बचाते
जब सोती है
गहरी नींद मे
तब बीते दिन के सपने
उसे कर देते हैं
बेचैन ....
वह
नहीं चाहती
'निर्भया'
या 'दामिनी' कहलाना
वह जीना चाहती है
अपने इसी अस्तित्व के साथ
अपनी इसी काया के साथ
जिसकी हर छाया में
उसका वामा रूप
कराता रहे एहसास
दिलाता रहे विश्वास
कि
'सशक्तिकरण'
होता है
सिर्फ
समाज की सोच
बदलने से .....
पर
क्या
यह सोच
बदली है ???
या बदलेगी ????
आखिर कब ?
आखिर कब तक ????

~यशवन्त यश©

17 July 2014

हो सके तो हमें माफ कर देना

Photo:-Palestine Solidarity Campaign UK
दूर देश से आती
तुम्हारे झुलसे हुए
नाज़ुक जिस्मों की
तस्वीरें देखकर
कौन ऐसा होगा
जो रो न देता होगा ...
मगर
सुनाई नहीं देतीं
दर्द से भरी
तुम्हारी चीखें
तुम्हारी कराहें
इस क्रूर दुनिया के
सफेदपोश लोगों को  ....
दिखाई नहीं देतीं
अनगिनत चोटें
ठंडे पड़ चुके
खामोश हो चुके
तुम्हारे बदन पर ...
इस खेलने
मस्ती करने की उम्र में
उधर
तुम्हारे ऊपर
आसमान से गिर रहे हैं बम
और इधर
अपने अंधेरे स्वार्थों के
शिखर पर
बैठे हुए हम
चुप्पी के साथ 
सिर्फ व्यक्त ही कर सकते हैं
अपनी संवेदना .....
गाज़ा के प्यारे बच्चों !
हो सके तो
हमें माफ कर देना।

~यशवन्त यश©

14 July 2014

विचार

हम सभी
उलझे रहते हैं रोज़
कितने ही विचारों के जाल में
जिनकी
उलझन को सुलझा कर
कभी हो जाते हैं मुक्त
और कभी
फँसे रहते हैं
लंबे समय तक
जूझते रहते हैं
खुद से
कभी किसी और से ....

विचार
अपने तीखेपन से
कभी चुभते हैं
तीर की तरह
और कभी
करा देते हैं एहसास
शक्कर की मिठास का ....

सबके अपने अपने विचार
कभी एक से लगते हैं
कभी साधारण से लगते हैं
कभी असाधारण हो कर
छाए रहते हैं
कहीं भीतर तक ....

इन विचारों को
कहने का
लिखने का
दिखने और दिखाने का
सबका अपना तरीका है
जिसमे
कभी
होता है आकर्षण
और कभी विरक्ति
फिर भी हम सभी
मुक्त नहीं हो सकते
विचारों के
सार्वभौम अस्तित्व से।

~यशवन्त यश©

12 July 2014

एक पल ऐसा भी आना है

जानता हूँ
यूं चलते चलते
एक पल
ऐसा भी आना है
समय के साथ दौड़ में
पिछड़ना है
रुक जाना है ....
'आज' से शुरू हुआ सफर
'आज' पर ही रुक कर
भविष्य की
मिट्टी में मिल कर
भूत बन जाना है ....
समझना होगा अब तो
दर्द गुमनाम तस्वीरों का
गर्द रोज़ धुले पुछे
कुछ ऐसा कर जाना है ...
आज नहीं तो कल
एक पल
ऐसा भी आना है ....।

~यशवन्त यश ©

09 July 2014

नशा शराब में होता तो........

'नशा शराब में होता
तो नाचती बोतल
मैकदे झूमते
पैमानों मे होती हलचल'

पर नशा
शराब
या काँच की बोतल में नहीं
मन के भीतर ही कहीं
रचा बसा होता है
दबा सा होता है
जो बस
उभर आता है
कुछ बूंदों के
हलक मे उतरते ही
बना देता है
चेहरे को
कभी विकृत
कभी विदूषक
धकेल देता है
लंबी प्रतीक्षा की
अंतहीन
गहरी
अंधेरी खाई में
जिससे कुछ लोग
निकल आते हैं
बाहर
और कुछ
फंसे रहते हैं
वहीं
छटपटाते हुए।

मन के भीतर के नशे को
उभरने के लिये
ज़रूरत
शराब की नहीं
शब्दों के
पत्थर की होती है
जिसकी
हल्की सी टक्कर
पैदा कर देती है
कल्पना की शांत नदी में
नयी धारणाओं के
अनेकों कंपन
अनेकों लहरें
जिनका तीखापन
तय करता जाता है
अपने बहाव में
साथ लिए जाता है
उजली राहों से
नयी मंज़िल की ओर।

~यशवन्त यश©

07 July 2014

अच्छा ही है

अच्छा ही है
मन का थम जाना
कभी कभी
शून्य हो जाना
शब्दों का
कहीं खो जाना
कल्पना का
और यहीं कहीं
किसी किनारे पर
रुक कर सुस्ताना
बहती धारा का ....
टकरा टकरा कर
कितने ही पत्थरों को
अस्तित्वहीन कर देने के बाद
कितने ही प्यासे हलक़ों मे उतर कर
जीवन देने के बाद
अच्छा ही है
एक करवट ले कर
सो जाना
खो जाना
भविष्य की यात्रा
और नए पड़ावों के
सुनहरे सपनों मे ।

~यशवन्त यश©

04 July 2014

मैं मजदूर हूँ

आज की नींव पर
गाता हूँ
मैं
कल की
सँवरी इमारत का राग
छैनी हथोड़ी की सरगम
और ईंटों का साज़
सुना देता है
मेरे मन के
भीतर की आवाज़ ....
मैं
रूप धरता हूँ
कभी बढ़ई का
कभी राजमिस्त्री का
और कभी
नज़र आता हूँ
सिर और पीठ पर
किस्मत का
बोझा उठाए
साधारण
बेलदार के रूप में ....
मेरी झोपड़ी में
चहल पहल नहीं
हलचल नहीं
मेरे ही बनाए
आपके महलों की तरह
रेशमी पर्दे नहीं ...
मैं
बे पर्दा हूँ
क्योंकि
खुशी
और गम छुपाने को
न कल था
न आज मजबूर हूँ
मैं
मजदूर हूँ। 

~यशवन्त यश©

25 June 2014

न अच्छे दिन हैं,न कडवे ही दिन हैं ये .....

https://www.facebook.com/ravishkumarndtvfans/posts/258233774381812
न अच्छे दिन हैं,न कडवे ही दिन हैं ये 
गरीब की पीठ पर,कोड़े से पड़े दिन हैं ये । 
कड़वे होते तो असर करते नीम की तरह 
मीठे होते तो हलक मे घुलते गुड़ की तरह। 
अंबानियों के महलों में रोशन होते दिन हैं ये 
फुटपथियों के झोपड़ों में सिसकते दिन हैं ये । 

~यशवन्त यश©

23 June 2014

दौलत का यह रास्ता गरीब के दर नहीं जाता




सच है कि पेट जिनके भरे होते हैं हद से ज़्यादा।
क्या होती है भूख उनको समझ नहीं आता ॥
सोते हैं सिरहाने रख कर वो गांधी के चेहरे को ।
सच का समंदर आँखों से कभी बाहर नहीं आता ॥
झांक कर तो देखें कभी ऐ सी कारों के बाहर ।
है मंज़र यह कि उन्हें कुछ भी नहीं सिखाता ॥
दिल दहलते हैं हर रोज़ अखबारों को देखकर ।
दौलत का यह रास्ता गरीब के दर नहीं जाता॥

~यशवन्त यश©

19 June 2014

क्या होगा उसका धरती के बिन........?

(चित्र:गूगल के सौजन्य से )
बरसों था जो हरा भरा
आज वो सूखा पेड़
पतझड़ मे छोड़ चली
सूखी पत्तियों को
नीचे बिखरा देख
पल पल गिन रहा है दिन
क्या होगा उसका
धरती के बिन.......?

धरती -
जिसने आश्रय दे कर
हो कर खड़े
जीना सिखलाया
धूप- छांव -तूफान झेल कर  
रहना अड़े
उसने बतलाया .....
भूकंपों से निडर बनाकर
फूलों की खुशबू बिखरा कर
हिल डुल हवा के झोंको से
देता जीवन
जो पलछिन ...
क्या होगा उसका
धरती के बिन........?

बन कर अवशेष
कहीं जलना होगा
या रूप बदल कर
सजना होगा
आरों की धार पर
चल-फिर कर
कीलों से ठुक-पिट
कहीं जुड़ना होगा

देखो....
जो भी होना होगा 
पर उन साँसों का क्या होगा
जिन्हें जवानी में दे कर  
अब देख रहा वो ऐसे दिन
बरसों था जो हरा भरा
क्या होगा उसका
धरती के बिन........?

~यशवन्त यश©

14 June 2014

आखिर क्यों

अभी 2 घंटे पहले घर के ऊपर आसमान मे काला धुआँ छाया रहा। पता चला है कि लखनऊ मे सीतापुर  रोड पर किसी प्रतिष्ठान में भीषण आग लगी है।हालांकि अब आसमान साफ है फिर भी इस धुएँ ने जो मेरे मन से कहा उसे निम्न शब्दों में व्यक्त कर रहा हूँ-

[घर की बालकनी से लिया गया यह चित्र उसी धुएँ का है।]
कभी मन के भीतर
कभी मन के बाहर
आखिर क्यों
दहक उठते हैं अंगारे
गुज़रे वक़्त के पीपों में भरी
ज्वलनशील बातों के
छलकने भर से  ....
आखिर क्यों
भड़क उठती हैं
घनघोर धुएँ को साथ लिए 
ऊंची ऊंची लपटें
जो समेट लेती हैं
खुद के भीतर
अनगिनत बीते कलों को ....
और आखिर क्यों 
सब कुछ भस्म हो चुकने बाद
बचती है
तो सिर्फ नमी ....
कुछ लहरें ...
आँखों से निकलीं 
कुछ पानी की बूंदें  ...
मन की जली हुई
दीवारों
और ज़मीं पर
जिनका अस्तित्व
संघर्ष करता सा लगता है
दम घोंटती गंध से
पार पाने को ...
आखिर क्यों
आपस मे जुड़ा है
विनाश
और विकास का यह वृत्त ....
इन सवालों के 
कई जवाबों में से
मुझे मिल न सका अब तक
मेरे मन का
सही-सटीक जवाब  ....
कभी मन के भीतर
कभी मन के बाहर
आखिर क्यों
इस कदर
भड़क उठती है आग ?

~यशवन्त यश©


[इस धुएँ की सही खबर आज-15 जून के अखबार से पता चली। ]

08 June 2014

उलझे ख्यालों की दुनिया

रोज़ भटकता हूँ
उलझे ख्यालों की
अनकही
अजीब सी दुनिया में
जिसके एक तरफ
घनी हरियाली है
और
दूसरी तरफ
वीरान बंजर
जिसके एक तरफ
बारिश की बूंदें
और सोंधी खुशबू है
और दूसरी तरफ
ऊपर से
बरसती आग 
फिर भी
यह पागल मन
मचलता है कह देने को
पल पल उभरता
हर जज़्बात
मगर मिल नहीं पाते शब्द
जुड़ नहीं पाते सिरे
क्योंकि
उलझे ख्यालों की यह दुनिया
देखने नहीं देती
कहीं और 
खुद की देहरी के पार । 

~यशवन्त यश©

04 June 2014

सूक्ष्म कथा--रिहाई........हनुमंत शर्मा

फेसबुक पर कभी कभी कुछ इतनी बेहतरीन और मर्मस्पर्शी रचनाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं कि उन्हें साझा किये बिना मन नहीं मानता।आज पेश है साभार मगर बिना औपचारिक अनुमति, हनुमंत शर्मा जी की यह बेहतरीन लघु कथा जो सरल भाषा शैली में मर्मस्पर्शी शब्द चित्र प्रस्तुत करती है।

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“साहब मेरी रिहाई खारिज़ करा दो किसी तरह ....” गिड़ागिड़ाते हुए उसने एक मुड़े हुए कागज़ की अर्जी पेश की | 
ज़ेल की तीस साल की नौकरी में . यह पहला था जो रिहाई टालने के लिए लिखित में अर्ज़ी दे रहा था | ये पिछले तीन साल से चोरी की सजा काट रहा था | एकदम गऊ था पहली ही पेशी में जुर्म कबूल कर लिया
मैंने एक बार पूछा लिया था “तुम एक्सपायरी दवाइयां क्या करते ..वो तो ज़हर होती है ?”
‘साहब.. वो तो मेरी औरत बीमार थी ....सिस्टर उसे नीली पन्नी वाली दवा देती थी ..उस दिन सिस्टर कहा दवा खत्म हो गयी है ...जाकर खरीद लाओ ...और पर्ची थमा दी ...पैसे नहीं थे ...दूकान में वैसी दवा दिखी तो उठाकर भागा ..वो तो बाद में पता चला कि दवा दुकानदार के काम की नहीं थी इसलिए उसे बाहर छांट कर रखा था ...लेकिन साहब उस बेकार की दवा के लिए मुझे पकड़कर बहुत मारा... यदि काम की दवा होती तो शायद मार ही डालते |” उसने अपनी राम कहानी सुनायी |
मै फ्लेश बेक से बाहर निकला तो मेरा ध्यान मुड़े हुए कागज़ पर गया| मैंने मुड़े कागज़ को और मोड़कर ज़ेब में रखते हुए पूछा “वैसे तुम अपने घर जाना क्यों नहीं चाहते ?” |
‘ कौन सा घर साहब ....औरत तो तभी मर गयी थी .एक लड़की थी सो उसका पहले ही ब्याह कर दिया था ... . अभी पिछले महीने बाप चल बसा ... बाहर कौन है साहब .. यहाँ अन्दर भूख लगे तो खाना मिल जाता है और कभी साल छ: माह में बीमार हुए तो दवा भी ... बाहर निकला तो खाने के बगैर मर जाऊँगा और खाना मिल गया तो दवा बगैर ...” गिड़ागिड़ाते हुए उसने मेरे पाँव पकड लिए |
मै अचानक पत्थर की मूर्ती में बदल गया था |||||



~हनुमंत शर्मा ©

(pic Sven Dalberg, courtesy google )

02 June 2014

जो मेरा मन कहे......आप सबके बीच 4 वर्ष

क़्त बहुत तेज़ी से चलता है इसकी यह रफ्तार हमारे जीवन के बाद भी थमती नहीं है। वक़्त की इसी तेज रफ्तार का एक नमूना है आज का दिन। जी हाँ आज 2 जून का दिन ....ब्लॉग जगत और सोशल मीडिया पर आप सबों के बीच चौथे वर्ष के पूरा होने के साथ  5 वें वर्ष मे मेरे प्रवेश का गवाह है।

इन 4 वर्षों मे कई नये मित्र बने भी तो कुछ मित्रों का साथ छूटा भी। कई बार दिमाग मे आया कि अब ब्लोगिंग को अलविदा कह दूँ लेकिन न न कर के भी अपनी नीरस और बोझिल लेखनी को साथ लिये अब तक यहाँ मौजूद हूँ।

इधर कई मित्रों ने अब तक यहाँ प्रकाशित हो चुकी प्रविष्टियों को किताबनुमा संकलन मे प्रकाशित करने की सलाह दी है/ देते भी रहते हैं,कुछ मित्र इंडीब्लॉगर आदि पर चल रही विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने और अपनी प्रविष्टि भेजने की सलाह भी देते रहे हैं। तो जहां तक सवाल अपना संकलन प्रकाशित कराने या उसका हिस्सा बनने का है मैं एक बार एक संकलन का सम्पादन (जिसके मात्र आवरण पर मेरा नाम था अन्यत्र नहीं) और बिना पैसा खर्च किये एक अन्य संकलन का हिस्सा भी बन चुका हूँ लेकिन मैंने यही देखा कि ऐसे संकलनों से किसी का कुछ भला नहीं होने वाला। मैं जो कुछ भी लिखता हूँ यह सिर्फ कुछ शब्द मात्र हैं इसलिये यह न 'कविता' है...न कहानी न किसी अन्य रूप में गद्य या पद्य ही है। यह सिर्फ मन की कुछ बातें हैं जिन्हें बचपन से किसी कागज़ पर लिख कर कहीं रख दिया करता था अब ब्लॉग पर सहेज दिया करता हूँ। इसलिए मुझे नहीं लगता कि मुझे बिना मतलब फिजूल खर्ची करके अपना कोई संकलन प्रकाशित करना चाहिये या किसी संकलन का हिस्सा बनना चाहिये।
रही बात इंडी ब्लॉगर आदि की प्रतियोगिताओं का हिस्सा बनने की तो वहाँ अङ्ग्रेज़ी का बोल बाला है जिस पर अपनी महारत नहीं है। बीच मे फेसबुक के कुछ ग्रुप्स की प्रतियोगिताओं का हिस्सा बनने का मौका मिला पर अब फिलहाल इसी ब्लॉग पर जब जो मर्जी लिखता कहता रहता हूँ।

यह पोस्ट लिखे जाने तक 306 फॉलोअर्स के साथ इस ब्लॉग को लगभग  1 लाख 10 हजार से ज्यादा हिट्स मिल चुके हैं।


आगे भी सफर जारी है.....आप सभी के स्नेह के साथ।


~यशवन्त यश
(यशवन्त राज बली माथुर)

27 May 2014

कुछ लोग -4

कुछ लोग
चलते रहते हैं
जीवन के हर सफर में
कभी अकेले
कभी किसी के साथ ....
पीते हुए
कभी कड़वे -मीठे घूंट
और कभी
सुनते हुए
दहशत की चिल्लाहटें ....
उनकी राह में
फूलों के गद्दे पर
बिछी होती है
काँटों की चादर
जिस पर चल चल कर
अभ्यस्त हो जाते हैं
उनके कदम
सहने को
वक़्त की हर ठोकर
और साथ ही
महसूस करने को
हर मुरझाते
फूल की तड़प ....
कुछ लोग
बस चलते रहते हैं
बिना रुके
बिना थके
क्योंकि वो जानते हैं
इंसान के रुकने का वक़्त
उस पल आता है
जब सांसें
थमने को  होती हैं
हमेशा के लिए।

~यशवन्त यश©

21 May 2014

कुछ लोग -3


कुछ लोग
अक्सर खेला करते हैं
आग से
कभी झुलसते हैं
कभी 
जलते हैं 
न जाने किस डाह को
साथ लिये चलते हैं...
शायद डरते हैं
खतरे में देख कर
खुद के अहंकार की नींव
जो दिन पर दिन
खोखली होती रह कर
ढह जानी है
एक दिन
अनजान भूकंप के
एक हल्के झटके भर से ....
ऐसे लोग
बे खबर हो कर
अपनी नाक के अस्तित्व से
करते हैं वार 
पूरी ताकत से
और धूल में मिल जाते हैं
'ब्रह्मास्त्र' की दिशा
उलट जाने के साथ। 

~यशवन्त यश©

19 May 2014

कुछ लोग--2


इस मौसम की
हर तपती दुपहर  को
मैं देखता हूँ
कुछ लोगों को
फुटपाथों पर
बिछे
लू के बिस्तर  पर
अंगड़ाइयाँ लेते हुए ....
या 
गहरी नींद मे
फूलों की खुशबू के
हसीन ख्वाबों को
साथ ले कर 
किसी और दुनिया की
हरियाली में
टहलते हुए ....

ये कुछ लोग
हैं तो
हमारी इसी दुनिया के बाशिंदे -
मगर
अनकही बन्दिशें
हमें रोज़ रोकती हैं
इनके करीब जाने से
क्योंकि इनके
शरीर और नथुनों
मे बसी है 
वही बासी गंध
जिसे हम उड़ेल कर आते हैं
पास के कूड़ा घर में.....

ऐसे लोग
अपने काले
मटमैले चेहरे और
तन पर
बस नाम के कपड़े पहने
गिनते रहते हैं
दिन की रोशनी और
रात के अँधेरों को
जिसे हम पर कुर्बान कर के
वो रहते हैं
आसमान की छत
पाताल की धरती पर
सदियों से 
यूं ही...
इसी तरह....।

~यशवन्त यश©

17 May 2014

कुछ लोग-1

[इस पोस्ट को यूट्यूब पर सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें।]

ऊंची डिग्रीधारी
कुछ लोग
समझने लगते हैं
कभी कभी
खुद को
इस कदर काबिल
कि बंद हो जाता है
दिखना
उनको हर वो शख्स
जो परिधि में नहीं आता
उनके आसपास फैली
चकाचौंध की .......

वह लोग
सिमटे-सिकुड़े रहते हैं
अपनी सोच की
अनूठी
चादर के भीतर
जिसकी लंबाई चौड़ाई
फैली होती है
यूं तो
मीलों दूर तक
फिर भी सीमित रहते हैं
खुद के बनाए
उसी अंधेरे वर्ग
या वृत्त के चारों ओर
जिसकी लक्ष्मण रेखा लांघना
उनके लिए
किसी प्रतिकूलता से कम नहीं .....

ऐसे लोग
खुदा होते हैं
खुद की नज़रों में
और उनके चाटुकार
रोज़ रचते हैं
झाड़ की ऊंचाइयों पर
नये नये संविधान
जिसकी हर धारा
और उपधारा
कहीं दूर होती है
उनकी श्री की
वास्तविक
वर्तमान
और भावी
तस्वीर से ......

इसलिये
मैं कोशिश करता हूँ
दूर रहने की
ऊंची डिग्रीधारी
कुछ लोगों से 
क्योंकि 
मुझे पसंद है रहना 
शून्य की सतह पर। 

~यशवन्त यश©

13 May 2014

तस्वीरें....

तस्वीरें
जो लटकी हैं
यूं ही दीवारों पर
याद दिलाने को
बीता कल
कभी कभी
बातें करती हैं मुझ से
अकेले में
बताती रहती हैं
दूसरों के निहारने से
मिलने वाला सुख
जमी हुई गर्द से
मिलने वाला दुख
और न जाने क्या क्या
कहती रहती हैं
अपनी खामोश जुबान से
कभी कभी
सुनती रहती हैं
मेरी हरेक अनकही
बताती रहती हैं
सही गलत का भेद
शीशे के फ्रेम में जड़ी
बीते कल की 
यह तस्वीरें 
अनमोल विरासत हैं
आने वाले
कल के लिए।

~यशवन्त यश©

07 May 2014

वक़्त के कत्लखाने में -6

वक़्त के कत्लखाने में
उखड़ती साँसों को
साथ लिये
जिंदगी 
बार बार देख रही है
पीछे मुड़कर
और कर रही है
खुद से कई सवाल
जिनका जवाब
आसान नहीं
तो मुश्किल भी नहीं है
मगर
आँखों के सामने
हालातों की तस्वीर
उलझी हुई है इस कदर
कि संभव नहीं रहा
पहचानना
और ढूंढ निकालना
सही -सच्ची बातों को
'क्या 'क्यों' और 'कैसे'
अब बनने वाले हैं भूत
भविष्य की
परिभाषा रच कर
उखड़ती साँसों को 
साथ लिये 
जिंदगी 
निकल रही है 
अंतहीन सफर पर। 

~यशवन्त यश©

01 May 2014

नींव और मजदूर......(मई दिवस विशेष)


मैं रोज़ देखता हूँ
सूखे चारागाहों में
रोज़ खुदती
सपनों की
नयी नयी नींवों को 
जो जल्द ही चूमेंगी
अनेकों ख़्वाहिशों का
आसमान  ....
और उन नींवों को खोद कर
सुनहरे वक़्त को
साँचों में ढालने वाले
उम्मीदों के फूस डली
झोपड़ियों में 
यूं ही जीते रह कर
सुलगते रहेंगे
अस्तित्व खोती
बीड़ी की तरह .....
उनके हाथ
जो रंगे रहते हैं
बेहतरीन सीमेंट और
मनमोहक पेंट से
रंग नहीं सकते
खुद की दीवारें .....
वह तो बस
बदलते रहते हैं
खुद का ठौर
खुद के जीने का रंग
चलते रहते हैं
दुनिया के संग
फिर भी
गुमनाम ही रहते हैं
तन्हा नींव की
एक एक आह की तरह।  

~यशवन्त यश©

26 April 2014

वह भी कुछ तप कर मुस्काए ...



हँसिया-हथोड़ा चलाने वाला
गर ऐसा पत्थर हो जाए
संतुष्टि के फूलों जैसा
वह भी कुछ तप कर मुस्काए ...

वह दृश्य होगा सुकून भरा
जब पसीने के पानी से 
सिंच कर ….
रंग-बिरंगा उपवन होगा
हर पत्थर के सीने पर।

~यशवन्त यश©

20 April 2014

वह रोज़ दिख जाता है.........

वह रोज़ दिख जाता है
कहीं न कहीं
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
फैली रेत और मौरंग से
अपने सपनों को
बनाते कभी मिटाते हुए  .....
वहीं कहीं नजदीक
उसके माँ-पिता
जुटे रहते हैं
खून-पसीने की चाक पर
देने को आकार
किसी के
सुंदर सजीले महल को ....
एक महल
जो सुंदर नक्काशी में
ढल कर
घोंसला बनता है
जुबान से बेडौल लोगों का .....
और एक महल
जो नन्ही उँगलियों से
ढल कर
बन कर
कभी ढह कर
हौंसला बनता है
मिठास से भरी
उम्मीदों के कल का ....
वह रोज़ दिख जाता है
ईंट गारे का
ककहरा पढ़ते हुए
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
छोडता हुआ 
अपनी निश्छल 
मुस्कुराहट के तीखे तीर 
जो चुभते तो हैं 
पर होने नहीं देते 
दर्द का एहसास 
नोटों से बिक चुके 
पत्थर दिलों को। 

~यशवन्त यश©

15 April 2014

आओ मतदान करें................अमित बैजनाथ गर्ग 'जैन'



अम्मा भूखी है, बच्चे बिलख रहे हैं, काका रो रहा है, अंगारे सुलग रहे हैं
सिसकती रूह को चुप कराने के लिए, अंधेरे में उजाले चमकाने के लिए
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कर्ज लेकर कई हरसूद मर रहे हैं, बूढ़े बाप बेटी के लिए तरस रहे हैं
बुझे हुए चूल्हों को जलाने के लिए, खेतों पर बादल बरसाने के लिए
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कौओं की पांख खुजलाने के लिए, खामोश चक्की को जगाने के लिए
भूखे-नंगे बदन को छुपाने के लिए, तन को निवाला खिलाने के लिए
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इंतजार को सिला दिलाने के लिए, कोशिशों को आजमाने के लिए
बहरों को नींद से उठाने के लिए, बिछड़ों को फिर मनाने के लिए
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सुलगते दंगों को बुझाने के लिए, अबला को सबल बनाने के लिए
आशा का दीया जलाने के लिए, खोया विश्वास जगाने के लिए
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जेलों से झांकती आहों के लिए, बॉर्डर को ताकती निगाहों के लिए
घर की ओर जाती राहों के लिए, जिस्म से लिपटी बांहों के लिए
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काशी-काबा संग लाने के लिए, सभ्यता-संस्कृति बचाने के लिए
विकसित अमन बनाने के लिए, चांद को भी चमन बनाने के लिए
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खेतों में हल उठाने के लिए, डूबते बाजार बचाने के लिए
उदास संसद बहलाने के लिए, धूर्तों को सबक सिखाने के लिए
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मंदिर-मस्जिद का बैर मिटाने के लिए, सूनी मांगों को फिर सजाने के लिए
धर्मों में सच्ची आस्था जगाने के लिए, शांति के परिंदों को उड़ाने के लिए
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- अमित बैजनाथ गर्ग 'जैन'
078770 70861
कवि. लेखक. पत्रकार. प्रेस सलाहकार.
amitbaijnathgarg@gmail.com

प्रस्तुति-आदरणीया प्रियंका जैन जी से प्राप्त ईमेल के सौजन्य से 

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