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19 February 2013

सोच रहा हूँ-

सोच रहा हूँ-
वक़्त -बेवक्त दिखने वाली
धूप छांव की
इस मृग मरीचिका में
सुस्ताती हुई
जीवन कस्तूरी
आखिर क्या पाती है
यूं पहेलियाँ बुझाने से ?

©यशवन्त माथुर©

12 comments:

  1. nothing at all..
    it just creates more confusion :P

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  2. संघर्ष करने का जज़्बा पाती है ...

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  3. क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
    मेरी नई रचना
    प्रेमविरह
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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  4. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    आभार आदरणीय ||

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  5. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.

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  6. यही रहस्य तो जीवन का सौंदर्य है..

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  7. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.

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  8. बहुत उम्दा प्रस्तुति ...

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  9. जीवन जीने का हौसला पाती है... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.. शुभकामनायें

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  10. होंसला मिलता है जीवन में ...

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